अभिषेक वर्मन निर्देशित '2 स्टेट्स' आलिया भट्ट की तीसरी और अर्जुन कपूर की
चौथी फिल्म है। दोनों फिल्म खानदान से आए ताजातरीन प्रतिभाएं हैं। उन्हें
इंडस्ट्री और मीडिया का जबरदस्त समर्थन हासिल है। वास्तव
में दर्शकों के बीच स्वीकृति बढ़ाने के लिहाज से दोनों के लिए उचित माहौल बना दिया
गया है। फिल्म देखते समय लेखक की समझ और निर्देशक की सूझबूझ से '2 स्टेट्स' अपेक्षाओं पर खरी उतरती है। साधारण होने के
बावजूद फिल्म श्रेष्ठ लगती है।
फिल्म में गानों का कोई विशेष महत्व नहीं है लेकिन हिंदी फिल्मों की
परंपरा को निभाने के लिए इनका इस्तेमाल किया गया है। फिल्म की कहानी पंजाबी कृष
मल्होत्रा और तमिल अनन्या स्वामीनाथन की प्रेमकहानी बदले भारतीय समाज में अनेक युवा
दंपतियों की कहानियों से मेल खाती है। विभिन्न प्रांतों, जातियों
और संस्कृतियों के बीच हो रहे विवाहों में ऐसी समस्याओं से दिक्कतें होती हैं। फिल्म
निर्देशक अभिषेक वर्मन ने फिल्म की प्रस्तुति में चमक और चकाचौंध से बचने की पूरी कोशिश
की है। अभिषेक ने हीरो-हीरोइन के प्रणय में प्रचलित लटकों-झटकों को नहीं अपनाया
है। अगर वे गाने ठूंसने के व्यावसायिक दबाव से बच जाते तो फिल्म की सरलता गहरी हो
जाती।
अर्जुन कपूर ने कृष मल्होत्रा के
किरदार को संयत तरीके से निभाया है। अभी तक की तीनों फिल्मों में उन्होंने थोड़े
रूखे और आक्रामक किरदारों को निभाया था। इस बार विपरीत स्वभाव की भूमिका में
उन्होंने खुद को सहज रखा है। बॉडी लैंग्वेज और संवाद अदायगी में उन्होंने अपना
स्वर मद्धिम किया है। निश्चित ही उनके अभिनय में निखार आया है।
आलिया भट्ट एक बार फिर प्रभावित करती हैं। अनन्या
स्वामीनाथन के किरदार को अपनी मासूमियत से वह अलग अंदाज तो देती हैं, लेकिन तमिल लड़की के रूप में वह संतुष्ट नहीं करतीं। उन्हें अपने लहजे और
मुद्राओं पर ध्यान देना चाहिए था। तीसरी फिल्म में आलिया भट्ट अपनी सीमाएं भी
जाहिर कर देती हैं। अभी तक दोनों फिल्मों में हम सभी ने आलिया भट्ट को देखा। पिछली
दोनों फिल्मों में वह किरदारों में ढलने के बावजूद आलिया भट्ट ही रहीं, लेकिन अपने नएपन की वजह से अच्छी लगीं। '2 स्टेट्स'
के नाटकीय दृश्यों में भावों की अभिव्यक्ति में वह खुद को ही
दोहराती रहीं। '2 स्टेट्स' के अंतिम
प्रभाव को बढ़ाने में सहयोगी कलाकारों का जबरदस्त योगदान है। अमृता सिंह, रोनित राय, शिव सुब्रमण्यम और रेवती ने माता-पिता की
भूमिकाओं में अपने परिवेश और परिवार की बारीकियों को भी व्यक्त किया है। हां,
फिल्म के दृश्यों के अनुकूल संवाद नहीं हैं। संवादों में अर्थ और
भाव की कमी है। फिल्म की प्रस्तुति का शिल्प भी एक बाधक है।
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