औरत होने की सज़ा


इस लेख में 'औरत' से मेरा तात्पर्य अविवाहित तथा विवाहित दोनों से है। इसलिए भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है.....

         "औरत" भगवान की एक अप्रतिम रचना जिसके कई रूप हैं। एक मां, बहन और पत्नी  के रूप में औरत सदियों से अपनी परम्परा निभाती चली आ रही है। लेकिन क्या आज के समाज में औरत सुरक्षित है? यह एक बड़ा सवाल है, हर इंसान के सामनें। औरतों पर दिनों-दिन हो रहे अत्याचार इस बात का सबूत हैं कि बेरहमी किस कदर औरत पर हावी होती जा रही है। बलात्कार, दहेज हत्या, मानसिक प्रताड़ना और ना जाने कितने तरह के शोषणों से दो-चार होती है ये 'औरत'। जाने कितनी नजरे उठतीं हैं और उन नजरों में होती है हवस की ज्वाला। कितनी ही बातें, गन्दी टिप्पणीं और अभद्र व्यवहार सुनने और सहने को मिलता है इस औरत को। छेड़छाड़ को बर्दाश्त करना तो आदत में शामिल हो चुका है। आखिर हम किस तरह के समाज का निर्माण करते जा रहे हैं? हम या कोई और? क्यों हम क्यों नहीं? आखिर हम भी तो इस समाज का ही एक हिस्सा हैं और यहां हो रही अच्छी बुरी हर घटना के हम भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितना कि घटना को अंजाम देने वाला। आखिर क्यों इंसानियत मरती जा रही है? क्यों इंसानी रूहों में दरिंदगी पनप रही है? क्यों हमारी उस नजर की रोशनी कम होती जा रही है जिसमें औरत के लिए सम्मान हो? क्या यह सब उस देवी के लिए औरत होने की सजा है या फिर श्राप? हमें खुद से पूछना होगा और तलाशना होगा समाधान। ताकि हर औरत सुरक्षित होकर घूम सके और कर सके अपने जीवन का निर्वाह। 


                                आवश्यकता है उस दृष्टिकोण की जिसमें औरत को देवी समझा जाए, जिसके वह योग्य है।       

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