उम्मीदों का दांव..

नेताओं के भाषणों और वादों की नीव पर जनता ने सपनों में तरक्की के जो महल तैयार किए थे वे सियासी तूफान में लड़खड़ा कर धराशायी हो गए। विकास के जो सपने देखे थे वे सियासी अंधेरों में कहीं गुम हो गए। बात कर रहा हूं पूरे देश की जनता के अरमानों की। लेकिन जनता इंसानी भावनाओं में बह कर एक बार फिर से उम्मीदों के पुल तैयार कर चुकी है। चुनावी माहौल है और वो भी पूरे चरम पर तो फिर से शुरू हो चला है नेताओं की हां हुज़ूरी का दौर। ये चुनावी माहौल तो ईद के चांद की तरह हैं। अरे! माफ करिएगा, ईद का चांद तो साल में एक बार दिख जाता है लेकिन ये माहौल तो पांच सालों में दिखता है। नारे, भाषण और आरोप यही बह रहा है चुनावी बयार में।    क्या हमने कभी सोचा है कि आखिर क्यों ये नेता जी जान लगा देते है चुनाव जीतने के लिए? अगर हम कहें कि देश की या जनता की सेवा करने के लिए तो ये अपने साथ ही एक संवेदनात्मक व्यंग्य होगा।  इस तरह की बात इनके लिए सोचना भी इनके विचारों के साथ बेइमानी होगी। आखिर सोचें भी क्यों आज के ऐसे युग में जब एक इंसान दूसरे इंसान की मदद करने से कतराता है, और अगर करता भी है तो एक कभी न समाप्त होने वाले एहसान के रूप में। ऐसे में इन नेताओं से एक नहीं बल्कि पूरे देश की सेवा की उम्मीद करना तो दूर ऐसा सोचना भी व्यर्थ है। फिलहाल ये अपने प्रलोभनों में सफल भी होते हैं या फिर यूं कहें कि किसी न किसी को तो हमें चुनना ही पड़ता है। बस किसी की बातों और वादों से उस पर विश्वास ही किया जा सकता है उसके मन में क्या है ये कौन जाने। यही तो हम सब करते हैं। किसी एक को चुन लिया और लगा दीं सारी उम्मीदें दांव पर अब इन उम्मीदों की भरण पोषण उसी की ज़िम्मेदारी, करे या ना करे

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