तीसरे मोर्चे की सियासत

आम चुनाव के नज़दीक आते आते राजनीतिक सरगर्मी बढ़ने लगी है। कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन और भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के आमने सामने की लड़ाई को अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने तिकोना रूप दे दिया है।  चुनाव करीब है तो नसीब चमकाने की जुगत में वो सभी दल हैं जो नेता देश के सिरमौर बनने का सपना देखते हैं और शायद इसीलिए सभी दलों ने वोटरों को लुभाने के लिए पैंतरें खेलना शुरू कर दिया है। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या इस चुनाव में कोई बड़ा परिवर्तन होगा या फिर वही पुराना राग अलापा जाएगा या फिर तीसरा मोर्चा जैसा कोई धड़ा बन पाएगा। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और जयललिता के नेतृत्व वाले अन्नाद्रमुक के बीच समझौते ने तीसरे मोर्चे की संभावना को बढ़ाया है। लेकिन अब जयललिता ममता की नजदीकी इस पर सवाल खड़े कर रही है।11 ग़ैर-कांग्रेसी और ग़ैर-भाजपाई राजनीतिक दलों के लोकसभा और राज्यसभा के नेताओं की बैठक से इस मोर्चे को हवा तो मिली लेकिन ये हवा असर नहीं डाल पाई। जो दल लगातार तीसरे मोर्चे का राग आलाप रहें हैं उन के लिए ये तय करना कठिन है कि तीसरे मोर्चे का नेता कौन होगा? मुलायम भी पीएम बनने का ख्वाब संजोए हैं तोे वही तमिलनाडु की अम्मा भी दावेदारी पेश कर रही हैं और यदा कदा ममता दीदी का नाम भी सामने आता रहता है। तो अगर ये मोर्चा अस्तिव में आया तो भी इसके दलों की मुश्किलें कम नहीं होगीं। गैर कांग्रेसी और गैर बीजेपी दलों के लिए एक और सबसे बड़ी मुश्किल और वो ये है कि सबको साथ लेकर कैसे चला जाए क्योंकि राजनीतिक स्वार्थ एक में बड़ी बाधा है।

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